The Legacy Of Madan Mohan: जब भी कोई धुन दिल को छू जाए, आँखों में नमी और होंठों पर मुस्कान एक साथ आ जाए, तो समझ लीजिए वो संगीत मदन मोहन का है। उनकी कंपोज की हुई हर एक धुन जैसे सीधे दिल से निकल कर आत्मा तक पहुंचती है। 14 जुलाई 1975 का दिन, हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के लिए बेहद भावुक था।
इसी दिन हमने उस संगीतकार को खो दिया, जिसने संगीत को सिर्फ धुनों तक नहीं, बल्कि जज़्बातों की एक दुनिया बना दिया था। मदन मोहन वही नाम, जिन्हें लता मंगेशकर प्यार से ‘मदन भैया’ और म्यूज़िक इंडस्ट्री ‘गजलों का शहजादा’ कहती थी।फौज में रहते हुए जिस इंसान को पता भी नहीं था कि वो एक दिन म्यूजिक डायरेक्टर बनेगा, उसने अपने हुनर और जुनून से संगीत की दुनिया में वो मकाम हासिल किया, जो बहुत कम लोगों को नसीब होता है।
‘लग जा गले’ की उदासी हो या ‘कर चले हम फिदा’ की देशभक्ति मदन मोहन की धुनें आज भी वैसी ही ताजा हैं जैसे पहली बार सुनने पर लगी थीं। उनकी म्यूजिक में ऐसा कुछ था जो वक्त के साथ पुराना नहीं पड़ा, बल्कि हर दौर में और खास बनता गया।

मदन मोहन की याद में एक रूहानी सफर
14 जुलाई कोई आम दिन नहीं है। ये वो दिन है जब हम उस शख्स को याद करते हैं जिसने अपनी धुनों से हमारे दिलों को छुआ, हमारे जज्बातों को आवाज दी और हिंदी फिल्म संगीत को एक नई रूह दी। बात हो रही है संगीतकार मदन मोहन की, जिनकी याद आते ही कानों में कोई मीठी सी धुन गूंजने लगती है।
मदन मोहन सिर्फ एक composer नहीं थे, वो अपने हर गाने में एक एहसास डाल देते थे। जैसे कोई दिल की गहराइयों से बात कर रहा हो। उनका संगीत ना सिर्फ कानों को अच्छा लगता था, बल्कि दिल में उतर जाता था। उनके गाने सुनते हुए ऐसा लगता है जैसे शब्दों में कोई जादू है, और उस जादू को पूरा करते हैं उनकी धुनें।
चाहे “लग जा गले” हो या “अपकी नजरों ने समझा”, हर गाना एक emotion को पूरी सच्चाई से सामने लाता है। मदन मोहन के संगीत में एक खास बात थी वो क्लासिकल बेस को छोड़ते नहीं थे, लेकिन उसे इतना आसान और soulful बना देते थे कि आम सुनने वाला भी उससे जुड़ जाए।
यही तो उनकी खासियत थी, कि उनका संगीत क्लासिकल होते हुए भी कभी भारी नहीं लगता। उनके सुर सिर्फ सुनने के लिए नहीं थे, वो महसूस करने के लिए थे। मोहब्बत की मासूमियत हो या जुदाई का दर्द, या फिर देश के लिए मर मिटने का जज्बा मदन मोहन की धुनों में हर जज्बा बखूबी ढल जाता था।
14 जुलाई 1975 को संगीत की दुनिया से एक चमकता सितारा हमसे रुख्सत हो गया। लेकिन अजीब बात ये है कि वो आज भी कहीं गया नहीं है। उसकी रचनाएं अब भी रेडियो, फिल्मों और हमारे दिलों में जिंदा हैं। मदन मोहन का पूरा नाम था मदन मोहन कोहली।
उन्होंने बतौर सैनिक अपनी सेवा दी, फिर All India Radio में काम किया और आखिरकार हिंदी फिल्मों में अपना वो जादू बिखेरा, जिसे आज भी लोग सिर आंखों पर रखते हैं। “मदन मोहन: अल्टीमेट मेलोडीज” नाम की एक किताब में उनकी जिंदगी के हर खास पल को बड़ी खूबसूरती से समेटा गया है। इसमें उनके बचपन से लेकर उनकी कामयाबी के वो सारे मोड़ हैं, जहां से उन्होंने सुरों की ऐसी लकीर खींची जो अब कभी मिट नहीं सकती।

बगदाद में हुआ था जन्म
कभी सोचा है कि एक बच्चा जो बगदाद में पैदा हुआ, कैसे हिंदी फिल्म संगीत का सबसे खूबसूरत चेहरा बन गया? ये कहानी है मदन मोहन की, जिनके सुरों में आज भी वही जादू बरकरार है। मदन मोहन का जन्म 25 जून 1932 को बगदाद में हुआ था। उनके पिता वहां एक बिजनेस से जुड़े काम के चलते तैनात थे। लेकिन पढ़ाई के लिए उनका सफर लाहौर, मुंबई और फिर देहरादून तक पहुंचा।
उनकी जिंदगी में एक ऐसा मोड़ आया जब 1943 में उन्होंने इंडियन आर्मी जॉइन की और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान देश की सेवा की। पर दिल तो संगीत की ओर ही खिंचता रहा। 1946 में उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो, लखनऊ में काम शुरू किया। यहां उनकी मुलाकात हुई उस दौर के दिग्गज कलाकारों से जैसे उस्ताद फैयाज खान और बेगम अख्तर।
इन्हीं के असर से उनके अंदर का संगीतकार और निखरकर सामने आया। 1948 में वे वापस मुंबई लौटे और एसडी बर्मन और श्याम सुंदर जैसे बड़े संगीतकारों के साथ असिस्टेंट के तौर पर काम किया। लेकिन असली पहचान उन्हें मिली 1950 की फिल्म ‘आंखें’ से, जिसमें उन्होंने बतौर म्यूजिक डायरेक्टर डेब्यू किया।
बस फिर क्या था, उनकी धुनों का सफर शुरू हुआ और कभी थमा ही नहीं। लता मंगेशकर के साथ उनकी जोड़ी मानो जैसे सोने पे सुहागा थी। लता जी उन्हें प्यार से ‘मदन भैया’ बुलाती थीं और कहती थीं कि अगर कोई गजल को रूह दे सकता है, तो वो सिर्फ मदन मोहन हैं।
मदन मोहन के दिल के सबसे करीब थे मोहम्मद रफी। जब ‘लैला मजनूं’ फिल्म में किसी ने किशोर कुमार को गाने का सुझाव दिया, तो मदन मोहन ने साफ कह दिया ‘मजनूं की आवाज सिर्फ रफी साहब की हो सकती है।’ और वही हुआ रफी की आवाज ने ऋषि कपूर को मजनूं बना दिया और फिल्म बन गई एक म्यूजिकल ब्लॉकबस्टर।
मदन मोहन की खासियत यही थी कि वो हर धुन में एक एहसास भर देते थे। उनके गाने सिर्फ सुने नहीं जाते, महसूस किए जाते हैं। चाहे वो गजल हो, क्लासिकल धुन हो या कोई रोमांटिक नंबर उनका हर काम वक्त से आगे का था।

दिलों में बसे हुए है उनके गीत
कुछ गाने ऐसे होते हैं जो वक़्त की हर दीवार को पार करके सीधे दिल तक पहुंच जाते हैं। चाहे कितने भी साल बीत जाएं, जब भी ये बजते हैं, दिल बस वहीं ठहर सा जाता है। ‘लग जा गले’ को ही ले लो। 1964 में आई फिल्म ‘वो कौन थी’ का ये गाना आज भी पहली मोहब्बत जैसा एहसास देता है।
लता मंगेशकर की वो मुलायम आवाज और मदन मोहन की धुन मिलकर ऐसा जादू बुनते हैं, जैसे हर लफ्ज़ में कोई अधूरी ख्वाहिश छुपी हो। ‘आपकी नजरों ने समझा’ में एक अलग ही मासूमियत है। अनपढ़ (1962) फिल्म का ये गाना सुनते ही जैसे वक़्त रुक जाता है और कोई प्यारी सी कहानी आंखों के सामने चलने लगती है।
अब बात करें ‘कर चले हम फिदा’ की, तो ये सिर्फ एक गाना नहीं, एक एहसास है। हकीकत (1965) फिल्म का ये गीत जब भी बजता है, दिल अपने आप देशभक्ति से भर जाता है। हर लाइन में एक सच्चा जज्बा और वो भावना है, जो आंखें नम कर देती है। ‘तुम जो मिल गए हो’ (हंसते जख्म, 1973) सुनते ही दिल में एक मीठा सा दर्द उठता है।
प्यार की वो उलझनें, वो सुकून और बेचैनी सब कुछ इस एक गाने में समा जाता है। और ‘वो भूली दास्तां’ की उदासी तो कुछ और ही बात कहती है। जैसे कोई पुराना खत मिल गया हो, जिसे पढ़ते वक्त यादों की बारिश हो रही हो। इन सभी गानों के पीछे जो नाम सबसे खास है, वो है मदन मोहन। उ
नकी बनाई धुनों ने लफ्जों को सिर्फ संगीत नहीं दिया, बल्कि उन्हें जिंदगी दी। राजा मेंहदी अली खान, राजेन्द्र कृष्ण और कैफी आजमी जैसे गीतकारों के साथ उनकी जोड़ी ने कुछ ऐसे नगमे रचे जो सीधे दिल से बात करते हैं। राजेन्द्र कृष्ण की सादगी, राजा मेंहदी अली की भावनाएं और कैफी आजमी की शायरी जब मदन मोहन की धुनों से मिलीं, तो जादू हो गया।
मदन मोहन भले ही 14 जुलाई 1975 को हमसे हमेशा के लिए चले गए, लेकिन उनका संगीत आज भी हमारे आसपास जिंदा है। 2004 में जब यश चोपड़ा ने फिल्म ‘वीर जारा’ में उनकी पुरानी अप्रयुक्त धुनों को नए अंदाज में पेश किया, तो ऐसा लगा जैसे वो फिर से लौट आए हों।
‘तेरे लिए’ और ‘कभी ना कभी तो मिलोगे’ जैसे गाने ना सिर्फ उस दौर की याद दिलाते हैं, बल्कि ये भी दिखाते हैं कि सच्चा संगीत कभी बूढ़ा नहीं होता। और हां, ‘तेरे लिए’ के लिए उन्हें मरणोपरांत फिल्मफेयर अवॉर्ड भी मिला जैसे वक्त ने खुद उनकी प्रतिभा को सलाम किया हो।

लता और मदन की जोड़ी थी सुरों की सबसे पक्की जोड़ी
जब बात पुराने हिंदी फिल्मों के संगीत की होती है, तो कुछ जोड़ियों के बिना वो अधूरी सी लगती है। उन्हीं में एक जोड़ी थी लता मंगेशकर और मदन मोहन की। ऐसा लगता था जैसे इन दोनों के बीच कोई म्यूजिकल टेलीपैथी थी। लता जी मदन मोहन को राखी बांधती थीं, और हर बार जब वो कोई नई धुन बनाते, तो लता बिना किसी हिचक के उन्हें आवाज देतीं।
ये रिश्ता सिर्फ भाई-बहन का नहीं था, बल्कि सुरों का भी था। मदन मोहन ने करीब 100 फिल्मों में संगीत दिया। लेकिन उन्होंने कभी भी संख्या के पीछे नहीं भागा। उनका फोकस हमेशा इस बात पर रहा कि हर धुन में जान हो, हर गाने में एक एहसास हो। यही वजह है कि उनके गाने आज भी दिल को छूते हैं।
आशा भोंसले ने एक बार मजाक में कहा था कि मदन मोहन तो सिर्फ लता से ही गवाते हैं। ये बात अपने आप में इस बात का सबूत है कि लता और मदन की जोड़ी कितनी खास थी। मदन मोहन की धुनें कोई साधारण कंपोजिशन नहीं थीं। उनमें एक गहराई थी, एक इमोशनल कनेक्शन था। जैसे उन्होंने दिल की धड़कनों को भी सुरों में बदल दिया हो।
और जब उन धुनों को लता की आवाज मिलती, तो वो गाने जादू बन जाते। चाहे ‘लग जा गले’ हो या ‘नैनों में बदरा छाए’, इन गानों में एक ऐसी मासूमियत और भावुकता होती थी जो सीधे दिल तक जाती थी।
आज भी जब कोई लता-मदन मोहन का गाना सुनता है, तो वो सिर्फ एक गीत नहीं सुन रहा होता, वो एक एहसास जी रहा होता है। यही तो होता है असली संगीत जो वक्त से परे हो जाए।